मैं भी तो इंसान हु (कविता)- परी बाविस्कर, समता कला मंच
तु घर से बहार क्या निकला,
जिम्मेदार हो गया ।
और मेरा घर से बहार निकलना,
बत्तमीझी का शिकार हो गया ।
तेरा रात को देर से आना,
स्वीकार हो गया ।
मेरा देर से आना बेशर्मी का,
किरदार हो गया ।
तेरी इच्छाओ का समंदर पार करना,
मेरे जिवन का सार बन गया ।
पर मेरी छोटी सी इच्छा पूरी करने से,
तेरे आत्मसम्मान पर वार हो गया।
मुझ पर जबरदस्ती करना,
तेरा अधिकार हो गया।
और तेरे अधिकारो के आगे,
चुप रहेना मेरा फर्ज हो गया।
तेरा घर मेरा मंदिर मै तेरी दासी,
और तु मेरा परमेश्वर हो गया।
तेरा दुःख भी मैने बांट लीया,
पर मेरा सुख भी,
तुझ पर बोझ हो गया।
इस 'हम' लफ्ज में
मैं भी तो हिस्सेदार हु,
तो क्यु हो सिर्फ अस्तित्व तेरा ।
आखिर मैं भी तो इंसान हु,
तु ये बात कैसे भूल गया।
और तेरा यही भेदभाव ,
मुझे सच्ची बात बता गया।
यहा पर बात मेरे स्वाभिमान की है,
लढाई मेरे अस्तित्व की है।
लढने की है मेरी बारी,
हो रहा अब संघर्ष जारी ।
